गुरुवार, 11 अगस्त 2016

ADHD बच्चे से दुनिया के सबसे कामयाब खिलाड़ी तक का सफर


एक मासूम बच्चा जिसे ये नहीं पता था कि वो क्लास में और बच्चों की तरह पढ़ाई गई बातों पर ध्यान क्यूं नहीं दे पाता हैं? क्यूं वो शांत बैठे रहने में एक बेचैनी महसूस करता है? क्यूं उसे स्कूल टीचर, क्लास के साथी बच्चे और परिवार में आने वाले कई नाते रिश्तेदार दूसरे बच्चों से अलग मानते हैं? वहीं बच्चा आज पूरी दुनिया के बच्चों का आदर्श बना हुआ है। ये कहानी है ओलंपिक में पदकों का ढेर लगा देने वाले माइकल फेल्प्स और उनकी मां के संघर्ष की। फेल्प्स ये भी नहीं जानते थे कि उन्हें मिली एक परेशानी उनके लिए वरदान भी साबित हो सकती है। सामाजिक जीवन में और निजी जीवन उनके साथ कई चुनौतियां पेश आती रहीं लेकिन इन सबसे उबर कर फेल्प्स अब इतिहास में दर्ज वो नाम हो गए हैं जिन्हें कभी नहीं भुलाया जा सकेगा।
अपनी बायोग्राफी नो लिमिट्स में फेल्प्स ने अपने बचपन का एक किस्सा याद करते हुए लिखा है कि ADHD की परेशानी से बचाने के लिए उन्हें एक दवाई दी जाती थी। जब वो क्लास में बहुत उछल कूद करते थे या शांत नहीं बैठ पाते थे तो उनके स्कूल में मौजूद नर्स उन्हें दवाई लेने की याद दिलाती थी। उन्हें क्लास के अन्य बच्चों के सामने ऐसे मौकों पर बहुत शर्मिंदगी होती थी। वो इन बातों को किसी से साझा भी नहीं कर पाते थे।
माइकल ने खुद को किसी भी तरह की दवाई से आजाद करने का प्रयास किया और वो इसमें कामयाब  रहे। उन्होंने ये भी लिखा कि मस्तिष्क में बड़ी शक्ति होती है। यदि इसे काबू कर लिया जाए तो ADHD जैसी किसी परेशानी से भी निपटा जा सकता है। उन्होंने अपने एक इंटरव्यू में भी ये बात कही थी कि आपके मस्तिष्क में इतनी शक्ति है कि आप किसी भी परेशानी से उबर सकते हैं यदि आप सोच लें कि आप ऐसा कर सकते हैं या आप ऐसा करना चाहते हैं।

क्या है माइकल फेल्प्स की परेशानी

Attention-deficit / hyperactivity Disorder (ADHD) मस्तिष्क की कार्यप्रणाली में आने वाली एक ऐसी दिक्कत है जिससे जूझने वाले बच्चे किसी काम पर ध्यान नहीं दे पाते हैं, वो अति सक्रिय होते हैं (एक जगह पर बैठ नहीं पाते हैं और दौड़ते भागते रहते हैं), इसके अलावा वो Impulsivity (आवेग) को भी लगातार महसूस करते हैं।
Attention-deficit यानि किसी काम में ध्यान नहीं दे पाना या किसी दिए हुए कार्य में आनाकानी करना। इस विकार से जूझने वाले बच्चे दी गई टास्क में भटकाव महसूस करते हैं, वो बहुत हद तक अव्यवस्थित होते हैं और उनमें किसी काम को पूरा करने के लिए जरूरी दृढ़ता का अभाव होता है। ऐसा नहीं है कि इन बच्चों में समझ की कमी होती है या ये किसी चुनौती से भागने की वजह से ऐसा करते हैं। ये मस्तिष्क का एक ऐसा विकार है जिससे ये खुद जूझते हैं लेकिन इनके इर्द गिर्द के लोग इसे उस तरह से नहीं समझ पाते।
Hyperactivity या अतिसक्रियता का मतलब लगातार दौड़ते भागते रहना किसी एक जगह पर स्थिर होकर न बैठ पाना। ऐसी जगहों पर भी शांत नहीं बैठना जहां सामाजिक रूप से ये उचित नहीं लगता है। ये बच्चे एक कुलबुलाहट महसूस करते हैं, ताली बजाते हैं या लगातार बोलना शुरू कर देते हैं। वयस्कों में ये स्थिति चरम पर हो सकती हैं जहां उन्हें आस पास के दूसरों लोगों की गतिविधियों से कोई मतलब नहीं रह जाता है।

Impulsivity या आवेग में रहना भी इस विकार का एक हिस्सा है। इसके शिकार बच्चे बहुत जल्दबाजी में किसी काम करते हैं। वे कई बार बिना सोचे समझे भी किसी काम को पूरा करने के लिए तत्पर हो जाते हैं जो उन्हें कई बार नुकसान भी पहुंचा सकते हैं। दरअसल उन्हें तत्काल किसी काम का फल पाने की जल्दबाजी रहती है। वो किसी चीज को पाने की बेचैनी में रहते हैं और परिणाम या पुरस्कार पाने का इंतजार करने में वो एक बेचैनी महसूस करते हैं।
वर्तमान समय में तकनीक के बढ़ते प्रभाव के बीच ये विकार बच्चों में बहुत ज्यादा पाया जाने लगा है। आज तक इसके बारे में कोई ठोस कारण नहीं रखे जा सके हैं। एक तर्क ये भी है कि अब ऐसे मामले इसीलिए ज्यादा सामने आते हैं क्यूंकि इसके विशेषज्ञ अब मौजूद हैं और माता पिता अपने बच्चों के इस तरह के व्यवहार को अब जल्दी भांप लेते हैं और इसकी प्रति सजग होकर विशेषज्ञों के साथ सलाह मशविरा शुरू कर देते हैं।
फेल्प्स की मां का संघर्ष
फेल्प्स की कामयाबी की कहानी आज हर किसी की जुबान पर है लेकिन उनकी मां के लिए उन्हें यहां तक पहुंचाने का संघर्ष बहुत बड़ा रहा है। किसी भी विकार के सामने आने के बाद डॉक्टर्स और एक्सपर्ट्स के भरोसे ही बच्चों को छोड़ देना चुनौती से भागना है। फेल्प्स की मां ने भी शुरूआती सलाहों के बाद माइकल को कुछ दवाइयां दी लेकिन उन्हें बाद में समझ में आ गया कि उसकी परेशानी दवाइयों से दूर होने वाली नहीं है। दवाईयां उसे कुछ देर के लिए शांत तो कर देती थीं लेकिन ये उसकी परेशानी से निपटने का स्थायी समाधान नहीं था।
माइकल फेल्प्स की मां डेबी को आज भी याद है कि माइकल की एक टीचर ने उनसे दावा करते हुए कहा था कि वो कभी किसी काम में ध्यान केंद्रित नहीं कर पाएगा। डेबी को तब बड़ा आश्चर्य होता था जब फेल्प्स 5 मिनिट के स्वीमिंग कॉम्पिटिशन के लिए 4 घंटे पर एक ही जगह बैठ कर अपनी बारी का इंतजार करता रहता था। डेबी टीचर्स की असहयोगात्मक रवैये से कई बार नाराज भी हो जाती थीं और कहती थीं कि उसकी कमियां गिनवाने के बजाए ये बताईए कि आप उसके लिए कर क्या रहे हैं।
डेबी की इस एक बात पर गौर करने की जरूरत है कि किसी भी बच्चे की ऐसी कोई परेशानी सामने आने के बाद उस पर हाय-तौबा करने के बजाय इस बात पर गौर करने की जरूरत है कि बच्चे के लिए क्या किया जा सकता है। ज्यादातर लोग सामाजिक तानो के बारे में, भविष्य की चुनौतियों के बारे में, प्रतियोगिता की दुनिया में बच्चे के पिछड़ जाने के विचारों में इतने खो जाते हैं कि बच्चे के भीतर छिपी प्रतिभा को निकालने पर विचार ही नहीं करते हैं।
डेबी ने एक इंटरव्यू में बताया कि 7 साल की उम्र में उसे पहली बार स्विमिंग के लिए ले गए थे। वो अपना चेहरा पानी में भीगाने से भी डरता था। यही वजह रही कि शुरुआत में उसे बैक स्ट्रोक स्विमिंग सिखाई गई। धीरे धीरे उसकी इस प्रतिभा के बारे में तो सबको पता चला लेकिन क्लासरूम में ध्यान नहीं दे पाने की वजह से उसे एक कमजोर बच्चा ही माना जाता रहा। उसकी एक टीचर की ध्यान नहीं देने की शिकायत के बाद उन्होंने डॉक्टर से संपर्क किया और तब उन्हें पता चला कि वो ADHD का शिकार है।
डेबी के लिए ये एक परेशान करने वाला समय था लेकिन वो खुद एक शिक्षिका थी ऐसे में उन्होंने अपने बच्चे की जरूरतों पर गौर करना शुरू किया। माइकल क्लासरूम में साथी बच्चों के पेपर छीन लेता था, वो शिकायत करता था कि उसे पढ़ने से कितनी चिढ़ है। डेबी ने महसूस किया अन्य विषयों के बजाय उसे गणित में थोड़ी दिलचस्पी है। लेकिन सबसे ज्यादा उसे स्वीमिंग से प्यार था और यही वजह है कि डेबी उसे सवाल भी उसी अंदाज में बनाकर देती थीं कि यदि तुम एक सैंकेड में तीन मीटर तैरते हो तो 500 मीटर तैरने में कितना समय लगेगा?
स्वीमिंग के दौरान ही उसके ध्यान को बेहतर बनाने की कोशिश भी डेबी करती थी। यानि जिन जगहों पर माइकल का सहयोगात्मक रवैया रहता था वो उन्हें दूसरी बातों को सिखाने के लिए भी काफी मददगार थी। माइकल कई बार बेचैन हो जाता था और गुस्से में अपने गॉगल्स को फेंक देता था ऐसे मौकों पर डेबी उसे समझाती थी कि उसके इस तरह के व्यवहार की वजह से वो क्या खो सकता है। हारना भी खेल का जरूरी हिस्सा होता है ये बात समझाने के लिए भी डेबी ने बहुत मेहनत की।
जब भी फेल्प्स के व्यवहार में डेबी इस तरह की बेचैनी देखती थी तो दूर से ही अपनी उंगलियों से C का संकेत बनाकर उसे दिखाती थीं। इस C का मतलब था COMPOSE यानि शांत रहो। डेबी ने ये भी कहा कि घर में काम करते हुए जब वो खुद भी कभी चिढ़ती थी तो माइकल उन्हें C का संकेत बनाकर दिखाते थे।
जैसे जैसे माइकल की ट्रेनिंग आगे बढ़ती गई उसमें अनुशासन भी बढ़ता गया। वो समय पर अपनी ट्रेनिंग के लिए जाता था और पिछले दस सालों में  ऐसा कोई मौका नहीं आया जब वो प्रेक्टिस के लिए नहीं गया हो यहां तक कि क्रिसमस के दिन भी।
डेबी मानती हैं कि माइकल की जिंदगी में बहुत से ऐसे मौके आए होंगे जहां दोनों मां बेटे ने सामने आने वाली समस्याओं को बहुत ज्यादा तवज्जो नहीं दी लेकिन स्वीमिंग करियर के लिए दोनों ही बहुत गंभीर रहे। वो आज भी उस लम्हे को याद कर भावुक हो जाती हैं जब एथेंस में फेल्प्स को पहला स्वर्ण पदक मिला था। अपना पदक लेने के बाद वो सबसे पहले दर्शक दीर्घा में अपनी मां डेबी की तरफ बढ़ा और उसके सिर पर पहनाए गए क्राउन और हाथ में दिए गए बुके को उसे अपनी मां के हाथों में दिया।
कैसे फेल्प्स ने जीता विषम परिस्थितियों की जंग को
फेल्प्स की कामयाबी के बाद एक बार फिर ये चर्चा शुरू हो गई है कि क्या ADHD जैसा विकार बच्चों के लिए एक बीमारी होने के बजाए एक वरदान भी हो सकता है? दरअसल ये कोई पहला मौका नहीं है। संगीत की दुनिया के बेताज बादशाह मोजार्ट हों या विज्ञान की दुनिया के भगवान माने जाने वाले आइंस्टीन, बिजनेस वर्ल्ड में हर युवा के आदर्श बिल गेट्स हो या फिर कला जगत में दुनिया के सबसे बड़े इंटरटेनर कहे जाने वाले माइकल जैक्सन हों, इन सभी की कहानियों में एक समानता है। ये समानता इनकी कहानी और फेल्प्स की कहानी को भी साथ जोड़ती है। दरअसल इन सभी के बचपन में इसी तरह के डिसऑर्डर से जूझने कहानी मिलती है।
फेल्प्स ने एक बार फिर इस विकार के वरदान होने की बहस को तेज कर दिया है। ब्रिटेन में इसे सबसे बड़े behavioural disorder के तौर पर माना जाता है। भारत में भी इसके मामले तेजी से सामने आए हैं और अब कई सेंटर्स भी सामने आते जा रहे हैं जो इस तरह के बच्चों के लिए स्पेशल एजुकेशन और थेरेपीज की व्यवस्था करते हैं।
फेल्प्स के मामले में उसकी जबरदस्त ऊर्जा का इस्तेमाल सही जगह पर होने को एक बड़ी वजह माना जा सकता है। बजाए दिशा हीन दौड़ते रहने के फेल्प्स ने अपनी ऊर्जा का इस्तेमाल सही जगह पर किया और आज वो दुनिया के कई माता-पिता के आदर्श बेटे की छबि बन चुके हैं। इसी तरह ऊर्जा के इस्तेमाल की कहानी ब्रिटेन के जुडो खिलाड़ी एशले मैकेंजी की भी सामने आई थी जो तीन स्कूलों से अपने व्यवहार की वजह से निकाल दिए गए थे। उन्होंने एक इंटरव्यू में अपनी इस परेशानी के बारे में बताया था जिसे कोई समझ नहीं पाता था।

ऐसा नहीं है कि सभी बच्चों की कहानी का अंत सुखद ही होता है। ऐसे भी बहुत से लोग हैं जो अपने परिवार और समाज की उपेक्षा की वजह से खुद को आगे नहीं बढ़ा पाए और गुमनामी के अंधेरों में खो गए। व्यक्तित्व में एक भय, चुप रहना, लोगों से ज्यादा बात नहीं करना, सामाजिक सरोकारों से वास्ता नहीं होना जैसे कई पहलुओं कई वयस्कों के जीवन में भी देखने को मिलते हैं। फेल्प्स की कहानी ये उम्मीद जगाती है कि यदि चुनौतियों से लड़ने की सही दिशा निकाली जाए तो परिणाम चमत्कारी हो सकते हैं।